(उन कारणों को भूल जाओ जो नाकामयाब हों। केवल उस कारण पर निश्चय करो जो ज़रूर कामयाब हो। )
"बेटा, तू इस दफा छुट्टी पर घर आएगी, तो पिताजी की दवाई लाना नहीं भूलना। घर के लिए जो सामान यहाँ नहीं मिलते उसकी सूचि तो तुझे दे दी थी, वह लाना नहीं भूलना। मैं जानती हूँ तुझे मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, तेरे ऑफिस में शांति नहीं है. क्या बात है बेटा ? विनोदिनी ने अपनी बेटी के साथ फ़ोन पर हर दिन की तरह बात करते हुए पूछा।वह अपने अवकाश प्राप्त पति के क्रमशः गिरती हुई सेहत और उसकी बेटी विनती, जो शहर में एक में कार्यरत थी, उसके कार्य और सेहत की चिंता उसे हमेशा सताती थी। विनोदिनी हर दिन कम से कम एक बार विनती को उसका कुशल मंगल जानने के लिए फ़ोन करती थी।
माँ की आवाज़ सुनकर विनती का दिल भर आया और रुंधे स्वर में उसने कहा "माँ , मैं ठीक हूँ। दफ्तर में बहुत तनाव है। शायद कंपनी के मालिक कंपनी को बंद करने की सोच रहे हैं। उन्होंने तो दफ्तर आने जाने के लिए जो बस सेवा थी, उसे भी बंद कर दी है।" अचानक विनती चुप हो गयी।
बेटी की चुप्पी से परेशान हो विनोदिनी ने विचलित होकर कहा , "तू तो मेरा साहसी बेटा है। तू हिम्मत मत हार भगवान् और अपंने पर भरोसा रख। किसी और कारण से शायद बस सेवा बंद कर रहे हों। अगर ऑफिस वाले सचमुच बस सेवा बंद कर देंगे तो तू ऑफिस आना जाना कैसे करेगी ?" माँ की आवाज़ में झलक रही परेशानी को महसूस कर विनती ने माँ को ढांढस बंधाते हुए कहा:
"माँ , मैं लोकल ट्रेन से जाऊंगी। तुम परेशान मत हो। पिताजी और अपना ख्याल रखना। मैं पिताजी की दवाए लाना नहीं भूलूंगी।"
विनती की बातों ने मानो विनोदिनी के सब्र का बाँध तोड़ दिया। वह आत्मग्लानि से भर गिड़गिड़ाते हुए बोली, "बेटा , तेरा भाई जो पैसे भेजता है उससे घर का खर्च निकल जाता है। तेरे भेजे हुए पैसे से पिताजी के इलाज और दवाओं का खर्च निकलता है। पिताजी के पेंशन -"
माँ को टोकते हुए विनती ने कहा , "माँ, तुम यह सब कहकर अपना और मेरा मन बोझिल कर देती हो। अब मुझे हॉस्टल की फीस जमा करने जाना है और नौ बजे तक रात का खाना खा लेना है। कल सुबह मैं आपको ज़रूर फ़ोन करुँगी। अपना और पिताजी का ख्याल रखना। "
हर रोज़ की तरह, नरेन्, एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति, लोकल ट्रेन के विकलांगों के लिए डब्बे में अपने बाएँ हाथ के सहारे चढ़ा। उसने हर रोज़ की तरह उस छरहरे बदन वाली युवती को बैसाखियों के सहारे उसी कोने में खड़ा हुआ पाया। युवती को देखकर लगता था कि उसने तीस साल के उम्र की देहलीज़ पार कर ली थी। वह हमेशा की तरह सलवार कमीज में थी और वही काले रंग का कपडे का झोला उसके कंधे पर था। हर रोज़ की तरह उसने नरेन् को देखकर, अपना सिर झुकाकर उसका अभिवादन किया। हर रोज़ की तरह विकलांगों के लिए ट्रेन का डब्बा स्वस्थ मुसाफिरों से खचा खच भरा हुआ था और वह सब आराम से सीटों पर विराजमान थे।
कुछ ही देर में एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी और लोगों का एक रेला डब्बे में सैलाब की तरह घुस आया और इससे पहले कि नरेन् अपने आपको सम्हाल पाता , भीड़ ने उसे कोने में धकेल दिया। अपने को सम्हालने के लिए नरेन् ने अपने बायें हाथ से खिड़की में लगे लोहे की रॉड को पकड़ लिया। वह युवती कोने में सिकुड़कर खड़ी थी और उसने अनायास कहा, "आज और दिनों से ज़्यादा भीड़ है। " नरेन् ने हामी भरते हुए पूछा , "मैं तो बीच के एक स्टेशन से चढ़ता हूँ , इसलिए बैठने की जगह नहीं मिलती है। आप भी क्या कोई बीच स्टेशन से ट्रेन में सवार होती हैं ?" युवती ने सहज भाव से कहा , "नहीं , मैं पहले स्टेशन से ही ट्रैन में सवार होती हूँ। "
युवती के उत्तर से अवाक होकर नरेन् ने कहा , "तब भी आपको बैठने की जगह नहीं मिलती ?" उत्तर में युवती मुस्कुराई और सिर हिलाकर हामी भरी। कौतुहल वश नरेन् ने कहा , "बुरा ना मानें तो आपका नाम पूछ सकता हूँ ?" युवती ने अपनी बैसाखियों को सम्हालते हुए कहा, "विनती, आपका ?"
"नरेन् , क्या आपकी दोनों टांगें -"
विनती ने नरेन् की बात पूरी होने से पहले ही कहा , "बचपन में एक दुर्घटना में मैंने अपने दोनों पाँव खो दिए। आपका दायाँ हाथ -"
अब नरेन् ने विनती की बात पूरी होने से पहले ही जवाब दिया , "मैं एक फैक्ट्री में काम करता हूँ। काम के दौरान एक हादसे में मेरा दायां हाथ जाता रहा। कंपनी वालों ने मुझे नौकरी से बर्खास्त नहीं किया। चलिए , मैं तो एक हाथ और अपने दोनों पाँव के सहारे खड़ा रह सकता हूँ। अगले स्टेशन पर मैं ट्रेन से उतर जाऊँगा। आप तो शायद आखरी स्टेशन तक ट्रेन में सफर करेंगी। आपका हक़ बनता है उन मुसाफिरों को, जो स्वस्थ हैं, से कहने का कि वह आपके सीट पर बैठने दें ?"
विनती ने मुस्कुराकर कहा, "हक़ तो आपका भी बनता है। फ़र्ज़ करिए आप अपना हक़ अदा कर सीट पर बैठे हों और हर स्टेशन पर ट्रेन जब रुके तो डब्बे में सवार होते हुए स्वस्थ यात्री आपसे बार बार पूछें कि आप कौन से स्टेशन पर उतरेंगे तो आप कैसा महसूस करेंगे ? मेरे पिताजी अवकाश प्राप्त सैनिक हैं। बचपन में मैं जब भी उनके साथ बस , ट्राम या लोकल ट्रेन में यात्रा करती थी तो उनको हमेशा खड़े होकर यात्रा करते हुए देखा है। सीट खाली होने पर भी वह खड़े रहते थे। मेरी माताजी , भैया और मैं उनसे अक्सर हमारे साथ खाली सीट पर बैठने के लिए कहते तो वह यही कहते , "मुझसे भी ज़्यादा ज़रुरत मंद बैठ जाएगा। "
No comments:
Post a Comment