Tuesday, January 17, 2017

बूझो तो जानें - I



इसका सीना चीरकर फसल हम उगाते हैं।
इसकी गोद में खेलते, हँसते, रोते, सोते और गाते हैं।
 इसकी श्वास से चलती है हमारी साँस।
इसका रक्त बन जल की धारा छेड़े जीवन का साज़।
इसके सत्व में अग्नि दे या हर ले जीवन।
इससे हमे  मिली प्राकृतिक  धरोहर :
जीव , घन , पर्वत , जलाशय और वन।
इसका खनन कर हम लेते हैं खनिज सा अमूल्य धन।
क्रोध में इसपर थूकते और दंभ में इसे  ठोकर मारते हैं।
अपने महत्वकांशी पाँवों से इसे रौंदकर
इसपर हम अपना हक  जमाते हैं।
इसको देते हैं हम चुनौती,
और मानवता की तकनीकी और औद्योगिक प्रगति बताते हैं।
हमारे  अत्यचार सहकर जब यह थर्राती है ,
तो वह हमारे लिए प्राकृतिक विपदा बन जाती है।

जन्में हैं इसी से, मरकर  इसी  में समा  जाएंगे।
बूझोतो यह कौन है... 
जी हाँ , यह है धरा हमारी, जननी यह हमारी है।
इसका भाग बँटवारा कर,
इसको दूषित और नष्ट कर,
क्या हम निजात पाएंगे ?
हमारे इस आशियाने को उजाड़कर,
क्या हम खुशहाली से जी पाएंगे ?


Sunday, January 15, 2017

A Hall of Mirrors (Poem)


I walked into a hall of mirrors;

curious to view me in them. 

As I moved from one mirror to another

'for a moment, my images made me wonder,

filling me with good humour.

Gradually my images clouded my mind with gloom;

making my very being asunder.

I gently closed my eyes

dispelling the darkness engulfing my mind;

finding my real self, yonder.

The warm reassuring glow rising from my heart;

Gradually lit my eyes lifting me up

preventing me from falling apart.

Thus dispelling the darkness from my mind,

reviving my belief in 

self, humanism and beings of all kinds

Life