कुंठित भावनाओं के अंधड़ ने
मचा रखी थी उथल पुथल मन में।
हर लम्हा दिलाता बीते दिनों की याद-
उन कटु अनुभवों का विशाद,
जो जख्मों को कुरेदती थीं हर बार।
बेबसी और हताशा के भंवर से
नहीं मिल रही थी निजात।
मानों जी रही थी दोहरी ज़िन्दगी:
अपने एहसास, अपनी अनुभूति,
अपनी उपलब्धी, उसके थे ही नहीं।
यह सब थीं मात्र मरीचिका।
हर कोशिश में नाकामयाबी
जैसे उसके भाग्य में था लिखा।
सिस्कियाँ झकझोर रही थी उसका
हताशा से बोझिल तन और मन।
चेहरे को हाथों से ढककर
रो पड़ी फफक फ़फ़ककर।
तभी महसूस किया हाथों पर
माँ के हाथों का स्पर्श:
समय और मेहनत से जीर्ण होने पर भी
बहुत स्नेहशील और कोमल थे माँ के कर।
देखा नहीं माँ की ओर सिर उठाकर।
आंसूंओं के बांध को रोकने की
माँ ने कोशिश की निरंतर:
उसके चेहरे पर से हाथों को हटाकर।
घुटनों को समेटकर और
उसमे चेहरे को छुपाकर,
माँ के प्रयास को किया निरर्थक।
"बेटे , क्यों कर रही है जुर्म अपने आपपर?
क्यों आघात कर रही है आत्मविश्वास पर ?
क्यों कुंठित हो रही है पढ़ लिखकर ?
क्या मिल रहा है खुद को कष्ट देकर!"
बिलख पड़ी माँ की बात सुनकर।
"माँ , क्यों कहती हो मुझे बेटा?
हमेशा बेटा-बेटी में फर्क है किआ।
मर्यादा की दुधारी तलवार से
मुझपर हमेशा वार किया।
जाने अनजाने जिससे भी होती गलती
उन सबका हर्जाना मैं ही भर्ती।
तुम्हारी पसंद-नापसंद को
हमेशा किया स्वीकार।
मुझे क्या पसंद है,
क्या हैं मेरे अरमान,
कभी नहीं जान पाई
मैं अपने ही विचार:
मानों अपनी ज़िन्दगी को
सँवारने का मुझको ही
नहीं था कोई अधिकार।
ना कर सकती थी प्रश्न
करने कोई संशय का निवारण;
बड़ों के आदेश का करना पालन,
खुद से छोटों की गलतिओं की
जिम्मेदारी खुद पर ले लेना-
यही है मेरा धर्म महान।
हमेशा तुम टोक देती हो -
कि मेरा बचपन बीता है
औरों के से भी खुशगवार।
बचपन से ही यही समझाया
पढ़ लिखकर गृहस्थी की
जिम्मेदारी ही है सरमाया।
जब हम सब पर छाया
विषम परिथितियाँ का अँधेरा,
तब तुम्हारी बात न सुनकर
मैंने यही मनाया-
तब की मैंने की चाकरी,
भरसक कोशिश की
आर्थिक सम्बल होने की।
कोशिश हमेशा यही रही
कि मर्यादा ना लांघूँ कभी:
रेंगती रही, रौंदी गयी,
पर स्वाभिमानी बनी रही।
नश्वर कामयाबी के लिए
कभी भी नहीं किया
अपने सिद्धांतों से समझौता;
पर तुम सबने उठाया
उसका भरसक फायदा।
छोटे भाइयों बहनों ने
जब तोड़े मर्यादाओं के बंधन,
उन्होंने अपना पराया समझा
मेरे जैसे नहीं किआ
अपने आपको स्वाह
रख सौहार्द और शांति
को सर्वोपरि बारम्बार।
वे तुम्हारे लिए हुए
दुनियादारी समझने वाले
और मैं तुम सबकी हुई
अभिमानी, जिद्दी और उन्माद!
वे हो गए हैं बड़े
और मैं हो गई छोटी।
लोगों और तुम सबने
उठाया पूरा फायदा
मेरी नेकदिली का।
झेला पाखण्ड लोगों का।
जब भी मैं कोशिश करती
करने अन्याय के विरूद्ध प्रतिवाद,
माँ , तुम मुझे खामोश
कर देती हर बार,
यह कहकर कि-
'बिगड़ी बनती नहीं,
ऐसे ज़िन्दगी संवारती नहीं।'
पर इस विश्वास के साथ
मैंने किआ अपना ही तिरस्कार।
देखती रही अपने आत्मसम्मान और
स्वाभिमान को होते तार तार कई बार।
समझा खून के रिश्ते
होते हैं सबसे दुखदाई:
तुम जीते हो यादों को।
तुम दोहराते हो बीते दिनों को।
तुम पनपते हो द्वेष पर।
तुम्हारा दृढ विश्वास है
बदला लेने पर;
क्यों कि, ऊँच नीच का
भेद भाव सहज करते हैं
पूरा करने निहित स्वार्थ।
तुम आसानी से करते हो
लोगों का इस्तेमाल
करने अपना मकसद पूरा
करने अपने काम आसान।
नियमों से जकड़ते तुम हो।
उन नियमों का उलंघन
करते तुम ही हो।
करते तुम ही हो।
फिर कहते हो जीना सीखो।
ज़िन्दगी के मज़े लेना सीखो।
महसूस की तुम सबकी अनैतिकता
कैसे पनपते हो दूसरों की
कमजोरिओं और दोष पर।
कैसे थोपते हो तुम अपने
व्यभिचार और चिंताओं को
बेझिझक मुझपर...
मैं घुलती रहती हूँ
अपने को दोषी मानकर।
इंसानों की लालसा,
इंसानों की हवस,
इंसानों का दंभ,
इंसानों के सत्ता का लोभ,
इंसानी फितरत जीतने की,
इंसानी फितरत दमन करने की,
इंसानी फितरत प्रतिशोध की,
इंसानों की हैवानियत,
इंसानों का पाखंड,
इंसानों का भ्रष्टाचार,
इंसानो का व्यभिचार,
इंसानों का दोगलापन।
इंसानों का निर्लज्ज व्यंग,
इंसानों का विषाक्त तंज,
क्या है यह इंसानी फितरत:
मर्यादा की लकीरों के बीच
वह ढूंढता है अपनी हर सोच
हर भावना, हर हरकत,
हर कोशिश, हर अंजाम
का प्रत्यक्ष और परोक्ष अर्थ।
मेरी सकारत्मक कोशिशों
पर तुम सबने जमाया हक़।
जब मैं अपनी ज़िन्दगी की
विडम्बनाओं से बोझिल हो
अपनी ज़िन्दगी की कहानी को
ख़त्म करने की कोशिश की,
तुम्हें उसे निरर्थक करने में
बड़ी कामयाबी मिली,
और मुझे मिली तुम्हारी
उल्हना और ममता बनावटी।
तुम्हें मेरी ज़िन्दगी की नहीं
अपनी बदनामी का था डर।
माँ, मुझे जाने देती मर।
क्यों यह सोच :
'लोग क्या कहेंगे ...!'
क्यों मुझे दुःखों से
आज़ाद होने से दिया रोक!
जी रही हूँ ज़िन्दगी मौत से बदतर।
गर यही है मेरी किस्मत का लिखा
मैं हूँ एक जिन्दा लाश की तरह।
माँ, तुमने मुझे क्यों पैदा किआ ... !"
यह अर्तनाद कर अनायास
उसने देखा अपनी माँ की ओर।
उसने झाँका माँ के मन की गहराई में
और देखा उनमें दुःखों के लाल डोर।
अपने प्रश्न और उसमें छुपे दर्द का
माँ के मन की गहराई में
दिखी अपनी ही परछाँई।
महसूस की वही घुटन,
और अपनी तन्हाई।
दोहरी ज़िन्दगी की घुटन;
सामाजिक विडम्बनाओं के बंधन।
सामाजिक बंधनों से जकड़ी हुई से
सभी आशा करते संवेदनशीलता;
पर उसके दुःख और कष्ट पर
किसी का दिल नहीं पसीजता।
उसने माँ की आँखों में देखा
पराधीन जीवन की बेबसी,
उसने माँ की आँखों मेँ देखा
देश के विभाजन से जुडी
खौफनाक यादें- कही अनकही।
उससे उत्पन्न शंका, आत्मसंशय,
हीन भावना, पलायनवादिता;
जीवन की चुनौतिओं से जूझते हुए
नफरत और निराशा से जकड़ा हुआ मन।
नकारातमक भावनाओं से जूझता हुआ मन।
इस अँधिआरे में छुपी उसे दिखी
आशा की एक टिमटिमाती किरण,
जो निराशा के अंधड़ से बचनेका
कर रही थी निरंतर प्रयत्न।
उसने आँखों को कर बंद
याद की माँ की ज़िन्दगी:
कैसे बार बार आशियाना
उजड़ने पर भी उसने हार नहीं मानी।
पति और बेटी ही हुए उसकी ज़िंदगानी।
बेटी को ज़िन्दगी के अंधे गर्त
और बेरहम थपेड़ों से बचाना चाहा।
उतना ही संस्कारों और मर्यादाओं को
मानकर जीने की जद्दो जहद में
अपनी बेटी को अनैतिकता और
व्यभिचार से त्रस्त होते देखा।
लोगों को उसकी सरलता का
असीम फायदा उठाते देखा।
नहीं जानती थी उसकी बेटी
भेद-भाव, उंच-नीच और हिंसा।
ज़िन्दगी उसके लिए नहीं थी
कोई खेल या प्रतिस्पर्धा।
निश्छल, निस्वार्थ और सद्भावना
के रिश्तों में थी उसकी आस्था।
वह नहीं सीखा पायी अपनी बेटी को
इस बेरहम दुनिया में जीना।
बेटी उसकी परेशानी का सबब
बनकर रहे वह चाहती कभी ना।
बेटी के हमउम्र जी रहे थे ज़िन्दगी
होकर कामयाब और खुशहाल।
माँ का मन ना चाहते हुए भी
बेटी की तुलना कर बैठती
उसके भाई-बहनों और
उसके हमउम्रों के साथ।
"तुम्हारी दीदी की चिंता
मुझे सताती है बार बार।
गर्त में है उसका वर्तमान,
उसका भविष्य है अंधकार।
यही डर सताता है कि
क्या होगा उसका
मेरे जाने के बाद। "
मन ही मन वह मानती थी
संवेदना की आड़ में
उसने जो ज्यादतियाँ की थी
अपनी बेटी के साथ:
जिन परिजनो और लोगों से
था उसका वैमनस्य
बेटी को आंका था उनके साथ
और वैसा ही किआ था बर्ताव।
कुचल डाला था उसका व्यक्तित्व।
भ्रमित किया था उसका अस्तित्व।
ना चाहते हुए भी उसने
अपनी संतान के आत्मसम्मान पर
उसकी सत्यनिष्ठा पर
और उसके आत्मविश्वास पर
किआ था प्रहार कई बार।
"माँ, तुमने मुझसे किया वैरों सा व्यवहार।
मेरे छोटे भाई बहनों ने किआ तुम्हारा विरोध;
यह कैसा तुम्हारा विचार: तुमने दी उन्हें मान्यता
और मेरा किआ हमेशा तिरस्कार !
माना कि सदभावना के लिए हमारा चोला बदला
पर उसके परिणाम ने किआ जग जाहिर
निहित स्वार्थ ही था मकसद तुम्हारा,
इंसानियत और संवेदना नहीं थे तुम्हारे विचार।
अपने स्वार्थ के लिए मेरे व्यक्तित्व को रौंद दिया
माँ, तुमने मुझे क्यों पैदा किआ ... !"
माँ रही बेबाक, अश्रु का बाँध टूटा आज।
निःशब्द अपने हाथों में लिआ बेटी का हाथ।
थमाया उसने एक कागज़ उसने रखा था
उसे संजोकर और पढ़ा था कई बार।
उसमें बेटी ने लिखे थे पिता के और अपने विचार,
जो था माँ को उनकी तरफ से जन्मदिन का उपहार।
आंसुओं से भीगे हाथों से कागज़ को थामा
और सिसकियों से कांपती आवाज़
में पढ़ने लगी पिता और अपने संवाद
जिसका मर्म उस कागज़ पर था लिखा,
जिसे माँ ने याद दिला दिया था आज:
"नहीं बनो किसीका प्रतिबिम्ब।
नहीं करो किसीकी अंधी भक्ति।
तुलना करना भी है निशानी कमज़ोरी की।
अपने को पहचानो, अपनी पहचान बनाओ
यही है हमारी सच्ची ज़िंदगानी।
कामयाबी-नाकामयाबी निशानी हैं इस कोशिश की;
यह नहीं हैं मंज़िल, बस पड़ाव हैं ज़िन्दगी के सफर में।
ज़िन्दगी के जद्दोजहद में कितनों की मदद की;
जिन्होंने साथ दिया, जिन्होंने सहारा दिया,
क्या उनको प्रकट किआ आभार अपना,
और उनके मुसीबत में उनका साथ दिआ ?
गलती सभी ही करते हैं
पर उनसे सीखकर ज़िंदगी को बेहतरीन जीने की
कोशिश करने का इरादा करते हैं ?
ज़िन्दगी है चंद लम्हों की
क्या उसे दूसरों की निंदा
और आलोचना में ज़ाया करते हैं ?
संवारें अपनी ज़िन्दगी तो अपने
और बेगानों की भी संवर जाएगी।
बिगाड़ोगे अपनी ज़िन्दगी तो
यह दूसरों के ही काम आएगी।
अपने लिए तो सभी जीते हैं।
परायों का भी हमदर्द बन जीकर देखो,
ज़िन्दगी और बदरंगी ना दिख पायेगी।
निहित स्वार्थ के लिए दूसरों का सहारा लेना
है कमज़ोरों की निशानी।
कामयाबी के लिए सिद्धांतों से समझौता करना
है कमज़ोरों की निशानी।
दूसरों की कमज़ोरी का फायदा उठाना
है कमज़ोरों की निशानी।
ज़माना बेरहम नहीं, बल्कि -
हमारे स्वार्थ , भेद-भाव, ईर्ष्या,हवस
से इसे हमबनाते हैं बेरहम।
शोषण के खिलाफ
हिंसक बगावत भी है
अपना और औरों का दमन।
ज़िन्दगी की सबसे बड़ी चुनौती है
जैसा निश्छल मन ले हम आए धरती पर
मन को वैसे ही निश्छल रख पाएं आखिरी सांस तक।
गम मत करो गर लोग तुम्हें बनाते हैं
जरिया उनकी कामयाबी का,
उनकी महत्वाकांक्षाओं को
पूरा करने का।
वे ना मानते हुए भी लोहा मानते हैं
तुम्हारी काबलियत का।
ऐसे लोग और चुनौतियाँ ज़िन्दगी की
पहचान कराती हैं तुम्हारी काबलियतों की।
जान और ईमान है पूँजी तुम्हारी।
इन्हे सहेजकर जीना
है तुम्हारी ज़िम्मेदारी।
हम सब ही हैं अपने दुःखों से दुःखी।
जब समझ पाएं आपस के दुःखों को,
तो संवर जाएगी हम सबकी ज़िन्दगी।
प्रेम, सम्मान और अमन -शांति
कभी दावे या बल से नहीं मिलतीं।
जितनी इन्हें सदाचार से दोगे
मिलेगी उससे ज़्यादा ही;
जैसे ज्ञान और मौलिक सुख
बाँटनेसे होती है उनकी वृद्धि।
हम धरती से हैं, धरती हमसे है नहीं।
हमारे जीवन का सहारा है यही:
इसे हम रौंदते, काटते और बांटते हैं
इसका नश्वर मोल आंकते हैं
इसपर घरौंदे और राष्ट्र की सरहदें बांधते हैं।
इस पर हक़ ज़माने के लिए हथियार भी उठाते हैं।
हम एक दूसरे को यह जताते हैं :
तुम हमारा दिया खाते हो ,
हम तुम्हारा दिया खाते हैं।
तुम हमारी दया पे जीते हो,
हम तुम्हारी दया पर जीते हैं।
इस दाम्भिक स्वामित्व के उन्माद में हम भूल जाते हैं
इस धरती से जन्मे हैं हम, इसी में विलीन हो जायेंगे।
जिस भी रूप में जन्मे हों
कैसे बिताया अपना जीवन
यह बताते हैं हमारे कर्म:
कैसा रहा हमारा व्यवहार
वनस्पति और प्राणियों के साथ।
कैसे प्रयोग किआ
धरती के प्राकृतिक धरोहर को
बिना किए उसका नाश।
मांगी स्वाधीन ज़िन्दगी
तो क्या निभाई अपनी जिम्मेवारी ?
क्या औरों की भी सुनी,
तब अपनी भी सुनाई?
माना हम अकेले आए हैं
और अकेले चले जायेंगे।
जान, जिसका ना है कोई मोल
क्या दी उसे सकारात्मकता,
या नाकारात्मकता से घोंट दिया
उसको, उसकी सोच और उसके बोल ?
उसको, उसकी सोच और उसके बोल ?
कितनो की ज़िन्दगी संवरी ,
कितनों को बर्बाद किआ।
कैसे जी हमने अपनी ज़िन्दगी
यह वक़्त की रेत पर हमारे पग चिन्ह
और समय की धारा यह बताएगी।"
और समय की धारा यह बताएगी।"