जल के स्त्रोत से मैं उत्पन्न हुई
बनकर एक बूँद,
सूर्य की किरणों के स्पर्श से
कर प्रस्फूटित विभिन्न रंग ।
पवन की लय पर थिरका
मेरा दीपशिखा सा अंग।
मंद गति से डोलती
बन विश्व की नीहारिका,
मैं उतरती गई निरंतर;
भूतल की चुम्बकीये आकर्षण के प्रत्युत्तर ।
हुआ मंद मेरा वर्ण,
जब पहुँची मैं सघन वन,
जहाँ वनस्पति के घनेरे में प्रकाश हुआ मन्द।
झरने के कलरव को सुन
मैने त्यागा चिंतन मनन।
मैं जल की एक बूँद,
जा मिली निर्झर जल धारा से -
प्रकृति के दिव्य रूप मैं हुआ मेरा समागम ॥
बनकर एक बूँद,
सूर्य की किरणों के स्पर्श से
कर प्रस्फूटित विभिन्न रंग ।
पवन की लय पर थिरका
मेरा दीपशिखा सा अंग।
मंद गति से डोलती
बन विश्व की नीहारिका,
मैं उतरती गई निरंतर;
भूतल की चुम्बकीये आकर्षण के प्रत्युत्तर ।
हुआ मंद मेरा वर्ण,
जब पहुँची मैं सघन वन,
जहाँ वनस्पति के घनेरे में प्रकाश हुआ मन्द।
झरने के कलरव को सुन
मैने त्यागा चिंतन मनन।
मैं जल की एक बूँद,
जा मिली निर्झर जल धारा से -
प्रकृति के दिव्य रूप मैं हुआ मेरा समागम ॥