संवेदन (कविता )
दुःख की विषाक्त तरंग ने किया मुझे शिथिल।
आसुओं के सैलाब ने किया ग़मों को जाहिर।
हिचकियों ने मुझे झकझोरकर किया मनको बोझिल ,
थिरकते होंठों से उभरते आर्तनादभी हुए शामिल।
दुःख की अविरल धारा का उत्स हुआ दिल।
आँखों को बंद कर की आसुओं को रोकने की कोशिश।
पर घायल मन ने नहीं होने दिया यह हासिल।
मैं दुःख के अथाह सागर में डूबने लगी।
ज़िन्दगी लगने लगी निराशा भरी और अंधकारमयी।
उम्मीद की किरण नहीं दिखी मुझे , कहीं भी।
मौत ही अंत कर सकती है मेरी घुटन भरी ज़िन्दगी।
आंसुओं के उबाल से हुई दृष्टि धूमिल।
सिसकियों ने किया मेरे मन और मस्तिष्क को शिथिल।
तन्द्रा ने मुझे अज्ञान कर किया अपना मकसद हासिल।
पाया मैंने खुदको अन्धकार की गिरफ्त में ग़मगीन।
निराशा के अन्धकार से निजात पाना हुआ नामुमकिन
तभी खुद को अपने सामने खड़ा मैंने पाया।
खुद को अचेत ज़मीन पर धराशायी पाया।
अभिमानी मन को तुच्छ चुनौतियों के लम्बे साये से घिरा पाया।
भीरु मस्तिष्क को अस्तित्वहीन उलझनों की भूलभुलैया में पाया।
शंका के शिकंजे में खुद को जकड़ा पाया।
अन्धविश्वास के पिशाचों को मेरा पीछा करते हुए पाया।
समाज में प्रतिष्ठित होने की होड़ में पिछड़ते हुए पाया।
अपने परायों के व्यंगपूर्ण कटाक्ष से खुद को घायल पाया।
डर के अँधेरे में खुदको घुट घुटकर जीते हुए पाया।
आत्मग्लानि को मेरा दम घोंटते हुए पाया।
दीर्घश्वास लेकर मैंने किया नमन ।
झाँककर देखा अपना अंतर्मन।
किया अपनी आत्मशक्ति से आत्मसात।
मेरे अस्तित्व के उद्देश्य का परमार्थ-
प्रेम,ज्ञान, सद्भावना और सहिष्णुता
हैं मेरे आत्मबल और मेरे जीवन का आधार।।