( सामाजिक कुप्रथाओं और विषमताओं से पीड़ित की अंतः ध्वानि )
जब से मैंने होश सम्हाला
सीखा अंधियारे को कहना उजाला।
काँटों को समझा पुष्प उपवन का
पुष्पों को देवताओं के चरणों में सजाया।
तुमने मुझे देवताओं की
मानवी वासनाओं की भेंट चढ़ाया -
यह कहकर , "भाग्यशाली है तू ,
तेरा जीवन सार्थक हुआ। "
तुमने ज्ञान रुपी तर्क वितर्क को माना
दाम्भिक प्रतिवाद की निशानी।
तुम्हारे आदेश को प्रश्न करने पर होती तुम्हे हैरानी।
तुमने बताया दास और सेवक में नहीं कोई भी अंतर।
दंभ और दमन ही हैं सफलता के मूल मन्त्र।
तुमने समझाया शिक्षा का अर्थ है
सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा पाना।
तुमने कहा , शिक्षा "समृद्ध वर्ग " के लिए है ,
यह भी मैंने माना।
सामाजिक (लोग क्या कहेंगे ) मान्यता की बेड़ियों से
जकड दिया मेरा चिंतन ।
तुम्हारे ज्ञान को किया ग्रहण
कर शोध , संधान , तर्क , विश्लेषण का विसर्जन।
तुमने भले और बुरे का अर्थ समझाया -
पर , कर्म के अर्थ को संज्ञाहीन कर।
दिया जीवन का अर्थ
समाज , धर्म,जाती, लिंग भेद की कुंडली में बांधकर।
जीवन रह गया नैतिकता और अनैतिकता
की दो लकीरों के बीच बंधकर।
यह कैसी विडम्बना :
भाग्य बड़ा है कर्म से , यह तुमने बताया।
नतीजन , अन्धविश्वास के पथ पर चलकर
भय , आत्मसंशय और प्रताड़ना
से कुंठित जीवन पाया।
शोषित हो समझा शोषण ही है सफलता की सीढ़ी।
महसूस किया: साम , दाम दंड , भेद का कर त्याग
येन, केन , प्रकारेण करें अपनी इच्छा पूरी।
क्रमशः जीवन सत्य से यह ज्ञात हुआ :
जीवन के अभिशाप से मृत्यु भी ना मुक्त कर पायेगा;
प्रथाओं और कुप्रथाओं से जन्मी
नीतिओं और दुर्नीतियों के
माया जाल में फंसकर रह जायेगा।
तुमने कहा , "मत छलकाओ आँसू ,
उन्हें अपनी मुस्कान के पीछे छुपाओ । "
क्योंकि, मेरे पराजय में है तुम्हारी विजय ,
मेरे आसमर्थ्य में है तुम्हारा सामर्थ्य ,
मेरे त्याग और बलिदान से होता है -
तुम्हारे भव्य सपनों का निर्माण।
यह सब स्वीकारा मानकर नियति मेरी ,
क्योंकि तुम्हारे मुझपर किये
अहसानों का क़र्ज़ है मुझपर महान।
यथार्त में :
मेरा भी है अस्तित्व , मेरी भी है वाणी।
मैं भी जीऊं स्वाधीन जीवन जैसे हर कोई प्राणी।
आत्मग्लानि के अनल में निरंतर दी है अपनी आहूति।
और पाया :
आत्मज्ञान और आत्मबल हैं मेरे आँखों की ज्योति।
सद्भावना और स्वाभिमान हैं मेरी पहचान।
अर्थात :
ह्रदय स्पंदन की प्रक्रिया
निरंतर करती अवगत ,
जबतक श्वास तबतक आस
असफल नहीं है कोई प्रयास,
पाने अपने जीवन का
स्वयं निर्धारत मकाम:
स्थापित करने अपने जीवन में
आत्मिक सुख और शांति का आयाम .
अपने मकसद में होऊंगा सफल :
मैं हूँ समर्थ , होने शिक्षित और पाने ज्ञान;
मैं स्वावलम्बी हूँ और अपनी विधाता ,
कर सकता हूँ अपने जीवन का निर्माण।
है मुझमें साहस समस्याओं का सामना करनेका।
है मुझमे धैर्य अपने उद्देश्य को देनेका अंजाम।
निःस्वार्थ कर्म में है मेरी आस्था।
आत्मसम्मान की परिभाषा है सबका सम्मान।
मन और मस्तिष्क का सामंजस्य है मेरी शक्ति;
सौहार्द्य और आत्मिकशान्ति हैं इसके अनुदान।
धरा ही है मेरी जन्मभूमि और कर्मभूमि।
उसका शोषण और ध्वंश का अर्थ है -
सभी प्राणिओं का हनन और अपमान।