सभी के रक्त की धारा में हूँ।
नद -नदी की धारा में हूँ।
उनकी धारा से उत्पन्न तड़ित में हूँ।
उनकी धारा से उत्पन्न तड़ित में हूँ।
झरने और झील में हूँ।
सागर और महासागर में हूँ।
बावड़ी क्या नलकूप में हूँ।
पर्वत व उनकी श्रृंखला पर
पर्वत व उनकी श्रृंखला पर
ष्वेत चादर सी बिछी रहती हूँ मैं।
वाष्प और मेघ में भी हूँ।
कृषक की जीवन दायनी हूँ मैं।
धरा की अभिन्न अंग हूँ मैं।
वर्षा व ओस की बूंदों में हूँ मैं।
श्रम के पसीने, साहस व संवेदना
के रक्त की कणों में हूँ।
रंग नहीं है कोई मेरा।
धर्म नहीं है कोई मेरा।
धर्म नहीं है कोई मेरा।
ठोस , तरल , वाष्प
सभी अवस्थाओं में हूँ मैं।
पुष्प व् फल के मधुर रस में हूँ।
ख़ुशी व ग़म के आंसुओं में हूँ।
वनस्थालिओं की जीवनधारा हूँ मैं।
मरुस्थल में दुर्लभ हूँ मैं।
वनस्थालिओं की जीवनधारा हूँ मैं।
मरुस्थल में दुर्लभ हूँ मैं।
तुम कहते हो जीवन दायिनी हूँ मैं;
पर बोतलों में भरकर बिकती हूँ मैं।
मीलों की दूरी पार कर,
मुझे गागर में सहेजकर भर,
गाँव की "अबलाएँ" लातीं मुझे अपने घर;
बनाकर अपनी मेहनत का पसीना,
लातीं हैं मुझे अपने माथे पर सजाकर।
मुझतक पहुंचना है उनके लिए दुर्गम।
नगर वासियों ने मुझतक पहुँचने का पथ
किया है खुद के लिए सुगम;
पर इस चेष्टा से वे करते धन अर्जन।
झरने, नदियों व कूप में कम,
गटर , पंक व नाले में ज़्यादा मिलती हूँ मैं।
बाढ़ के कहर, सुनामी की लहर हूँ मैं।
तुम मेरा दुरुपयोग करोगे,
तो कहर बरपाउंगी तुमपर।
'गर तुम मेरा सदुपयोग करोगे ,
तो जीवनदायिनी रहूंगी जन्मजन्मांतर।
दीन दुःखियों के लिए हूँ जैसे गागर में सागर।
धनी कोशिश करते मुझे धन की भांति
बांधके स्वार्थी प्रयोग करने पर।
भूलो मत , हम सभी हैं प्रकृति के अभिन्न अंग।
प्राकृतिक नियमों का रहे हमें स्मरण।
उनका उलंघन बनता है प्रलय का कारण।
अब तुम समझ गए होगे मैं हूँ कौन।
तुम बूझो तो जानें क्या है मेरा नाम।
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