Thursday, May 14, 2020

जीवन पथ का अंधेरा और उजाला

जन्म से ही अनुभव हुआ 
अंधियारे और उजियारे का। 
होश संभालने पर पृथ्वी वासी हो 
पता चला दिन का और रात का। 
बचपन में सुने किस्से-कहानिओं में,
खेल में और प्रतिस्पर्धियों में:
अनजाने में,अँधियारा प्रतीक बना
डर और पराजय  का ।
पराजय, अन्याय, अनर्थ व आरजकता
का पर्यायी हुआ इतिहास में।
द्वेष, बैर, ईर्ष्या, क्रोध, प्रतिशोध
सा परिलक्षित हुआ साहित्य में।
अज्ञानता, रहस्य, असंशोधित तथ्य 
का आधार बना विज्ञान में।
पापाचार, अधर्म व विकृति
का परिचायक हुआ संस्कृति व धर्म में।
अन्धकार के कई आयाम उभरकर आये
जीवन के अविरल श्रोत में। 
उजियारा जो जग को उजाले से भरे। 
उजियारा जो अंधियारे को हरे;
अंधियारे के विपरीत है
उजियारे का हर आयाम।
कौन रह सकता है
इस वास्तविकता से अनजान।
पर, दोनों ही हमारे अस्तित्व के हैं अभिन्न अंश।
दृष्टि: हमारी एक इन्द्रिय से
 हम अंधियारे और उजियारे की,
साये और प्रतिबिम्ब की 
कर पाते हैं पहचान। 
इस वास्तव को समझने का 
प्रयत्न करने की ली ठान :
पलकों से ढककर आखों को 
तो कुछ पल के लिए 
चारों ओर अंधेरा छाया,
और दिलो -दिमाग पर 
पड़ा अनजाने डर का साया।
अपनी आखों को बंद कर
एक जाने पहचाने पथ पर
कोशिश कर रही थी चलने की। 
पथ के पास प्रकाशस्तंभ से  
 उजियारा पलकों से छनकर
मानो बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर पाया। 
ज़मीन को पाँव से टटोल टटोल कर
बढ़ चली मैं उस पहचाने पथ पर।
रास्ते में आये रोड़ों से बचकर
जब पहुंची अंधियारे भरे पथ के मोड़ पर,
सहसा महसूस किया जैसे किसीने 
मन और मस्तिष्क को
अंधियारे की चादर ओढ़ाकर 
रोक दिया मुझे वहीं पर।
अंतर्ध्वनि गुंजी मेरे अस्तित्व में।
कहा "रुक क्यों गई, बढ़ चल इस पथ पर।
अनजान नहीं है तू इसके हर कण से।
महसूस कर, समझकर, निडर होकर ,
तू निरंतर बढ़ चल इस पथ पर।"
पलकें बिछी रहीं आखों पर,
मैं पथ को हर पद स्पर्श से
महसूस कर, और समझकर
निरंतर बढ़ चली उस पथ पर।
आत्मनिर्भरता,संवेदना,  जिज्ञासा और धैर्य
को अंतर्ध्वनि ने किया उजागर,
और तड़ित की तरह 
मेरे मन और मस्तिष्क को
आत्मसंशय, पथभ्रष्ट (पथ पर गिर जाने का डर)
होने के  भय रूपी अंधियारे को दूर कर। 
अब आत्मविशास सहित कदम रहे थे पथ पर बढ़।
बाहिर के अंधेरे से अब नहीं था कोई डर;
तभी बंद पलकों से उजियारा आया छानकर
और मुझे आभास हुआ उस प्रकाशस्तंभ का 
जो है उस पथ के छोर पर।
आँखें खोलकर निहारा वादियों को
जो उस समय थी रात की चादर ओढ़कर।
स्त्री हो या पुरुष हम सभी चल रहे हैं
निरंतरअपने जीवन पथ पर
इस यात्रा के पड़ावों से गुज़रते हुए :
जूझते  और समझते  जीवन के 
अंधियारे और उजाले को:
 उनकी अलग अलग परिभाषाओं को। 
उनके अलग अलग आयामों को।  
जीवन समर नहीं है। 
जीवन प्रतिस्पर्धा नहीं है। 
जीवन क्रीड़ा नहीं है। 
यह जीवन के अंधियारे के प्रति 
मात्र  हमारी प्रतिक्रियाएं हैं। 
धीर, स्थिर, निर्भीक, 
स्वाभिमानी, विनयशील हो  
जीवन के अंधियारे दायरे से 
 गुज़रते हुए हम निरंतर रहें हैं बढ़ 
उस चिरंतन  सत्य के उजाले की ओर। 
जीवन पथ के अनजाने अंधियारे को
उजाले में बदलने में 
हमारे प्रयास, हमारे कर्म
मात्र ज़रिआ हैं, जिसमें 
हमारी सत्यनिष्ठा, हमारी संवेदनशीलता 
के उजियारे से हम 
परस्पर को  जीवन पथ पर 
अग्रसर होने  के लिए प्रोत्साहित कर   
हम निरंतर बढ़ चले हैं अपने जीवन पथ पर। 
सत्ता का लोभ, स्वार्थ,दंभ, अज्ञानता,
द्वेष , भेद -भाव , शोषण, वैमनस्यता
के अँधेरे से परस्पर को मुक्त कर;
प्रेम , सद्भावना, सत्यनिष्ठा, सौहार्द्य 
के उजाले में हम सब मिलकर 
 निरंतर बढ़ चले हैं अपने जीवन पथ पर।



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