Thursday, May 25, 2017

यह कौन है ?




एक संभ्रांत महिला अपनी परिचारिका के साथ : 'यह कौन है ? यह तो एक औरत का नग्न शारीर रास्ते पर पड़ा है ! oh God ! has she been raped ! is she dead ! What is happening to our society ! Oh God !

परिचारिका : मैडम, आपके कैरी   बैग में जो साड़ी है उससे इसे ढक देते हैं।
महिला : रेखा , are you kidding ! मैं अपनी डिज़ाइनर वेअर साड़ी यहाँ डाल दूँ ! यह तो मैं फंक्शन के लिए ले जा रही हूँ। मैं तो अपना मोबाइल भी घर पर भूल आयी। चलो , फंक्शन हॉल में पहुंचकर पुलिस को फ़ोन कर देंगे।

कुछ मनचले नौजवान : यार देख , किसी ने मज़ा लेने के बाद इसे यहाँ फेंक दिया है। चल , मोबाइल में फोटो और वीडियो ले लेते हैं।

WhatsApp और सभी SNS पर अपलोड कर देंगे। मिनटों में वायरल हो जायेगा। लेटस do it dude , मज़ा आएगा।


एक वृद्ध दम्पति : हे भगवान् , कैसे दिन दहाड़े हत्या कर लाश को किस हैवानियत से यहाँ फेंक गए हैं। घोर कलयुग है घोर कलयुग।  चुप चाप यहां से निकल पड़ो नहीं तो फ़िज़ूल में पुलिस के पचड़े में पड़ जायेंगे।

एक राजनितिक दल का सदस्य :  अरे यह क्या , यह तो महत्वपूर्ण राजनितिक षड्यंत्र है। इस मुद्दे को तो राजनितिक महकमे में उठाना पड़ेगा !

एक समाजसेवी संस्थान का कर्मी : प्रशासन ने अभी तक इस देह का अंतिम संस्कार नहीं किया ? हमें ही कुछ करना पड़ेगा। लोगों से चंदा लेकर इसका क्रियाक्रम करना पड़ेगा!

क्रमशः वहाँ लोगों की भीड़ जमा हो जाती है। सब उस रास्ते पर पड़े देह पर फब्तियां कस्ते हैं।  कुछ फ़िज़ूल में मुसीबत ना मोल लेने के इरादे से चले जाते हैं। सभी एक दूसरे से पुलिस और करीब के अस्पताल में इत्तेला करने को कहते हैं। वहां पर मौजूद एक युवक कहता है कि उसे पुलिस और अस्पताल का फ़ोन नंबर मालूम नहीं है पर उसने वीडियो और फोटो प्रेस वालों को मोबाइल से मैसेज कर दिया है। सभी उस देह को नफरत और संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं। तभी पुलिस की एक गाड़ी गश्त लगाते हुए वहां पहुँचती है।

कुछ पूंजीपति और उद्योगपति वहाँ से गुज़रते हुए जमा हुई लोगों की भीड़ को देखकर : इलेक्शन के वक़्त यह राजनितिक दल कितने वादे करते हैं। चंदा लेते हैं।  बुनियादी सुविधाओं को देने का दम भरते हैं , पर जब प्रशासन की बागडोर मिल जाती है तो सब भूल जाते हैं। नियमित कर वसूलते हैं ; पर वही प्रशासनिक अव्यवस्था वही अराजकता हर रास्ते, गली और कूचे में दिखती है।

इंस्पेक्टर अपने लोगों को निर्देश देने लग जाता है। पुलिस को देख भीड़ वहां से तितर बितर हो जाती है। तभी एक पत्रकार वहाँ आकर पहुँचता है। उसकी नज़र उस निर्जीव देह पर पड़े कागज़ के एक पर्चे पर पड़ती है। वह इंस्पेक्टर का ध्यान उस ओर आकृष्ट करता है। इंस्पेक्टर कागज़ के टुकड़े को उठाकर पढता है :

मेरा वसीयतनामा :

मेरे फेंफड़े , ह्रदय , आँखें , कलेजा , गुर्दे ज़रुरत मंदो को समर्पित।
मेरा देहावशेष मानवता के वैज्ञानिक जिज्ञासा और अनुसन्धान को सम्पर्पित ....



(यह लेख धरा को समर्पित )


अरज़ (लघु कथा)



(उन कारणों को भूल जाओ जो नाकामयाब हों। केवल उस कारण पर निश्चय करो जो ज़रूर कामयाब हो। )

 "बेटा,  तू इस दफा छुट्टी पर घर आएगी, तो पिताजी की दवाई लाना नहीं भूलना। घर के लिए जो सामान यहाँ नहीं मिलते उसकी सूचि तो तुझे दे दी थी, वह लाना नहीं भूलना। मैं जानती हूँ तुझे मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, तेरे ऑफिस में शांति नहीं है. क्या बात है बेटा ? विनोदिनी ने अपनी बेटी के साथ फ़ोन पर हर दिन की तरह बात करते हुए पूछा।वह अपने अवकाश प्राप्त पति के क्रमशः गिरती हुई सेहत और उसकी बेटी विनती, जो शहर में एक  में कार्यरत थी, उसके कार्य और सेहत की चिंता उसे हमेशा सताती थी। विनोदिनी हर दिन कम से कम एक बार विनती को उसका कुशल मंगल जानने के लिए फ़ोन करती थी।
माँ की आवाज़ सुनकर विनती का दिल भर आया और रुंधे स्वर में उसने कहा "माँ , मैं ठीक हूँ। दफ्तर में बहुत तनाव है। शायद कंपनी के मालिक कंपनी को बंद करने की सोच रहे हैं। उन्होंने तो दफ्तर आने जाने के लिए जो बस सेवा थी, उसे भी बंद कर दी है।" अचानक विनती चुप हो गयी।
बेटी की चुप्पी से परेशान हो विनोदिनी  ने विचलित होकर कहा , "तू तो मेरा साहसी बेटा है। तू हिम्मत मत हार भगवान् और अपंने पर भरोसा रख। किसी और कारण से शायद बस सेवा बंद कर रहे हों। अगर ऑफिस वाले सचमुच बस सेवा बंद कर देंगे तो तू ऑफिस आना जाना कैसे करेगी ?" माँ की आवाज़ में झलक रही परेशानी को महसूस कर विनती ने माँ को ढांढस बंधाते हुए कहा:
"माँ , मैं लोकल ट्रेन से जाऊंगी। तुम परेशान मत हो। पिताजी और अपना ख्याल रखना। मैं पिताजी की दवाए लाना नहीं भूलूंगी।"
विनती की बातों ने मानो विनोदिनी के सब्र का बाँध तोड़ दिया। वह आत्मग्लानि से भर गिड़गिड़ाते हुए बोली, "बेटा , तेरा भाई जो पैसे भेजता है उससे घर का खर्च निकल जाता है। तेरे भेजे हुए पैसे से पिताजी के इलाज और दवाओं का खर्च निकलता है। पिताजी के पेंशन -"
माँ को टोकते हुए विनती ने कहा , "माँ, तुम यह सब कहकर अपना और मेरा मन बोझिल कर देती हो। अब मुझे हॉस्टल की फीस जमा करने जाना है और नौ बजे तक रात का खाना खा लेना है। कल सुबह मैं आपको ज़रूर फ़ोन करुँगी। अपना और पिताजी का ख्याल रखना। "

हर रोज़ की तरह, नरेन्, एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति, लोकल ट्रेन के विकलांगों के लिए डब्बे में अपने बाएँ हाथ के सहारे चढ़ा।  उसने हर रोज़ की तरह उस छरहरे बदन वाली युवती को बैसाखियों के सहारे उसी कोने में खड़ा हुआ पाया। युवती को देखकर लगता था कि उसने तीस साल के उम्र की देहलीज़ पार कर ली थी। वह हमेशा  की तरह सलवार कमीज में थी और वही काले रंग का कपडे का झोला उसके कंधे पर था। हर रोज़ की तरह  उसने नरेन् को देखकर, अपना सिर झुकाकर उसका अभिवादन किया। हर रोज़ की तरह विकलांगों के लिए ट्रेन का डब्बा स्वस्थ मुसाफिरों से खचा खच भरा हुआ था और वह सब आराम से सीटों पर विराजमान थे।
कुछ ही देर में एक  स्टेशन पर ट्रेन रुकी और लोगों का एक रेला डब्बे में सैलाब की तरह घुस आया और इससे पहले कि नरेन् अपने आपको सम्हाल पाता , भीड़ ने उसे कोने में धकेल दिया। अपने को सम्हालने के लिए नरेन्  ने अपने बायें हाथ से खिड़की में लगे लोहे की रॉड को पकड़ लिया।  वह युवती कोने में सिकुड़कर खड़ी थी और उसने अनायास कहा, "आज और दिनों से ज़्यादा भीड़ है। " नरेन् ने हामी भरते हुए पूछा , "मैं तो बीच के एक स्टेशन से चढ़ता हूँ , इसलिए बैठने की जगह नहीं मिलती है। आप भी क्या कोई बीच  स्टेशन से ट्रेन में सवार होती हैं ?" युवती ने सहज भाव से कहा , "नहीं , मैं पहले स्टेशन से ही ट्रैन में सवार होती हूँ। "
युवती के उत्तर से अवाक होकर नरेन् ने कहा , "तब भी आपको बैठने की जगह नहीं मिलती ?" उत्तर में युवती मुस्कुराई और सिर हिलाकर हामी भरी। कौतुहल वश नरेन् ने कहा , "बुरा ना मानें तो आपका नाम पूछ सकता हूँ ?" युवती ने अपनी बैसाखियों को सम्हालते हुए कहा, "विनती,  आपका ?"
"नरेन् , क्या आपकी दोनों टांगें -"
विनती ने नरेन् की बात पूरी होने से पहले ही कहा , "बचपन में एक दुर्घटना में मैंने अपने दोनों पाँव खो दिए।  आपका दायाँ हाथ -"
अब नरेन् ने विनती की बात पूरी होने से पहले ही जवाब दिया , "मैं एक फैक्ट्री में काम करता हूँ। काम के दौरान एक हादसे में मेरा दायां हाथ जाता रहा। कंपनी वालों ने मुझे नौकरी से बर्खास्त नहीं किया। चलिए , मैं तो एक हाथ और अपने दोनों पाँव के सहारे खड़ा रह सकता हूँ। अगले स्टेशन पर मैं ट्रेन से उतर जाऊँगा।  आप तो शायद आखरी स्टेशन तक ट्रेन में सफर करेंगी।  आपका हक़ बनता है उन मुसाफिरों को, जो स्वस्थ हैं, से कहने का कि वह आपके सीट पर बैठने दें ?"
विनती ने मुस्कुराकर कहा, "हक़ तो आपका भी बनता है। फ़र्ज़ करिए आप अपना हक़ अदा कर सीट पर बैठे हों और हर स्टेशन पर ट्रेन जब रुके तो डब्बे में सवार होते हुए स्वस्थ यात्री आपसे बार बार पूछें कि आप कौन से स्टेशन पर उतरेंगे तो आप कैसा महसूस करेंगे ? मेरे पिताजी अवकाश प्राप्त सैनिक हैं। बचपन में मैं जब भी उनके साथ बस , ट्राम या लोकल ट्रेन में यात्रा करती थी तो उनको हमेशा खड़े होकर यात्रा करते हुए देखा है। सीट खाली होने पर भी वह खड़े रहते थे। मेरी माताजी , भैया और मैं उनसे अक्सर हमारे साथ खाली सीट पर बैठने के लिए कहते तो वह यही कहते , "मुझसे भी ज़्यादा ज़रुरत मंद बैठ जाएगा। "
                

TEASER (NOT OF ANY MOVIE)






Oh yes, my day begins with gossip
And I end my day with it.
I enjoy all scams and scandals
I can spend hours debating on it.
I thrive on our double standards-

I am a snooty, conceited
voyeuristic socialite,
Who knows might is right.
I profit from sensationalism:
I prey on people's curiosity, guilt and pessimism.
Very much on the sly.I thrive on social hypocrisy
Make them wallow in woe and black humour,
You know the reason why!
I bend and break the rules and norms
Meant for those living in multilayered shell
of values, beliefs and fear of God.
It gives me added pleasure to 
have an innocent fool on the block.
Oh yes, I become their guardian angel
The innocent soul fighting for their cause.
I become their desired leader
for their noble cause- The illusive challenges 
I created for them with my crafty mind.
I energise myself by "touching" (verbally or otherwise)
The vulnerable points of those 
with sensitive heart and mind.
Their reaction of fear, jealousy and misery
 Sets my scoop hungry mind at ease.
This helps me to turn a blind eye 
To my own harsh reality!
I, guilty? but why?
I am  the media, polity 
i am the 'conscientious' society.
I survive on peoples' fear 
of change and transition..
I make them perceive
Diversity as exploitative disparity.
I survive on fear and vengeance,
I induce using their ignorance.
I strike at the roots of unity.
I intoxicate the average people
To the senseless issues of 
religion, status, gender and polity.
They cry themselves hoarse for liberty
Liberty comes with responsibility?
I tell them, it's a myth not reality.
I so easily convince them 
their hallucination is their ideology.
I convince them to trash their identity
I use their ego against them
To easily revolt against themselves
And easily lose their peace and sanctity.
I make them turn a blind eye
To the need for compassion
 and love to save the Earth and humanity.
.




Life