Saturday, December 31, 2016

वोट (लघु कथा )



निर्गुण, गिरिधारी गाँव का रहनेवाला इक्कीस वर्षीय युवक था। कई सालों तक शहर में दिहाड़ी मज़दूर की हैसियत में काम करता था। जब उसे खदान  और ईमारत बनाने वाले ठेकेदार ने काम देना बंद कर दिया, तब वह गाँव वापस चला आया। अब गाँव में वह अपने बूढ़े माता और पिता के साथ खेतों में काम मिलने पर काम कर लेता था। परिवार का गुज़ारा बड़ी मुश्किल से चल रहा था।
निर्गुण ,   हर रोज़ की तरह सुबह उठकर खेतों में मजदूरी पाने की आशा में गाँव के चौपाल की तरफ बढ़ चला। आज छठा दिन था , जब निर्गुण को कोई काम नहीं मिला था। मायूस होकर वह पुराने बरगद के  नीचे बने चबूतरे पर  बैठ गया। गाँव में सरपंच के चुनावों की सरगर्मी चल रही थी। निर्गुण ने घसीटा और बिशना को अपनी  ओर आते हुए देखा। दोनों गाँव के नामवर लठैत थे और चुनाव में गाँव के रईस , गोवर्धन लाल की
मदद कर रहे थे। उनको देखकर निर्गुण सहम गया और चुपचाप उनको अपनी ओर आते हुए देखता रहा। दोनों ने उसके पास आकर कहा , 'निर्गुण , हम तुझे  ही ढूँढ रहे थे। सरपंच के चुनाव में हमारे गोवर्धन जी चुनाव में खड़े हुए हैं। हम चाहते हैं कि तू  गोवर्धन जी को ही वोट देना। उनका चुनाव चिन्ह भाला  है ; तुम उस चिन्ह पर ही निशान लगाकर वोट देना। इस काम के लिए हम तुझे  हज़ार रूपये देंगे।' कहकर , घसीटा ने निर्गुण को पांच सौ रूपए दिए और कहा , 'गोवर्धन जी का चिन्ह , भाला  याद रखना , उसपर ही वोट देना। तभी तुझे  बाकी के पाँच सौ रूपये मिलेंगे , वर्ना , तेरी  हड्डी और पसली एक कर देंगे। निर्गुण को चेतावनी देकर घसीटा और बिशना चले गए।
चुनाव का दिन आया। निर्गुण ने अपना बहुमूल्य वोट दिया। वह वोट देकर पोलिंग बूथ से निकला ही था कि , घसीटा और बिशना ने आकर उसे घेर लिया और पूछा , 'अबे , तू भाले को ही वोट देकर आया है ? सच बता , नहीं तो तेरी खैर नहीं। '
बाकी के पाँच सौ रुपये पाने की आशा में निर्गुण ने कहा , 'हाँ भाई , मैंने भाले को ही वोट दिया है। अब तो मुझे  बाकी रूपये दे  दो। '
घसीटा को निर्गुण पर विश्वास नहीं हुआ। उसने निर्गुण को घूरकर उसपर घूँसा तानते हुए गुर्राया , 'मुझे मालूम है कि तू झूठ बोल रहा है , सच बता नहीं तो तेरा जबड़ा तोड़ डालूँगा!'
घसीटा का रूद्र रूप देखकर निर्गुण घबरा गया और गिड़गिड़ाते हुए कहा , 'माफ़ करना भाई , मुझसे गलती हो गयी ! मैंने खाते  और कलम के चिन्ह को वोट दे दिया। पढ़े लिखे होते तो दफ्तर में किसी अफसर या बाबू की नौकरी कर रहे होते। ऐसे बदहाली की ज़िन्दगी नहीं जीनी पड़ती !.... '

Friday, December 30, 2016

Reflection (Poem)







In the horizon, the sky in dusky crimson hue
Blended with the forest’s silhouette 
As the dusty path led me-
Through the woods to a rivulet
To rest my life’s journey worn feet.
I perched by the stream-
Marveling at its clear waters -
Reflecting the sky’s gleam;
I bent over to look at
 My reflection in the water,
Only to find a face,
With a strange demeanor;
A face I had not seen ever.
When I observed it closely,
I found images of the ages gone by  
Appear as momentary ripples
On the surface and disappear from sight.
To catch on the receding images
I held on to a thorny bush,
And leaned towards the water

But, blood trickled from
My thorn gashed hand
Into the water giving it a crimson hue;
Agony of the wound affected my view-
And I witnessed moments from history
Harrowing events of pain and misery-
That filled me with vengeance and fury.
Overpowered by such dismal feeling
I knelt on the ground and-
Unintentionally dislodged a stone;
That fell into the clear water;
And gently settled on the stream’s floor
I gazed at the concentric ripples
 The fall of the stone had caused
On the tranquil surface of the stream;
Once its surface regained its transparent gleam
I saw countless tiny grains of sand
 Reverently swirl around the stone
 Like a constellation of devotees
 Revolving around the creator’s deity
  I gazed at the star spangled sky
 And found it reflect the devout galaxy.
A gentle breeze whispered by
Through the branches of the trees nearby,
Showering their crispy yellow leaves
On the serene surface of the stream;
They appeared to me
As raft like time machines
Transporting me to my life’s cherished moments
That defined my being in the present-
My life seemed ensconced in the instant.
I saw my being reflected
 In every grain of the creation;
Making every moment of my existence
As unique and inimitable as me-
The calmness of the stream
Mirrored my inherent peace
With the truthful realisation-
I am an integral part of the creation;
Every moment of my life’s journey
Will remain as a fragment of the creation to eternity



Friday, December 23, 2016

साँप (लघु कथा )


नीरू एक बूढा वनवासी था। वह अपनी कुटिया में अकेला रहता था। वह दिन भर कुटिया के चारों ओर बागवानी और खेतीबाड़ी कर अपने दिन सुखपूर्वक गुज़ार रहा था। कुछ जंगली मुर्गियाँ उसके खेत और बगीचे में दाने चुगने आती, तो नीरू ने उनके रहने के लिए दड़बा बना दिया था।
एक दिन नीरू खेत में काम कर रहा था। उसके खेत में एक साँप ने दो अंडे दिए हुए थे। अनजाने में नीरू की कुदाल लगकर साँप का एक अंडा फूट गया और तभी नीरू ने दुसरे अंडे को देखा। उसने जल्द ही उस अंडे को मिटटी और सूखे पत्तों से ढक दिया। हर दिन जब नीरू खेत में काम करने जाता तो वह उस जगह को ज़रूर देखता जहाँ उसने साँप के अंडे को रखा हुआ था और एक दिन उसने देखा कि अंडा फूट रहा था और उसमे से एक काले रंग का सँपोलिया निकला। नीरू ने उसे अंडे के छिलकों  समेत बाँस की टोकरी में रखा और ले जाकर बागीचे में उसके लिए बनाये खड्डे में  रख दिया।  फिर उसने खड्डे को पेड़ की सूखी टहनियों से ढक दिया।
नीरू रोज़ जंगली मुर्गियों द्धारा ठुकराए अण्डों को लाकर उस खड्डे  के सामने सँपोलीए के खाने के लिए रख देता और कुछ देर बाद वह जब लौटता तो उसके द्धारा रखे अंडे गायब होते। तब नीरू खेत में काम करने चला जाता। कुछ दिन बीत जाने पर सँपोलिया एक बड़ा साँप हो गया। नीरू अक्सर उसे खेत और बगीचे में रेंगते हुए पाता।
जाड़े के दिन थे। नीरू मूंह अँधेरे ही जागकर दांतुन करने के लिए बगीचे में लगे नीम के पेड़ की टहनी तोड़ने गया। अनजाने में उसका पाँव उस साँप पर पड़ गया जो नीम के पेड़ के नीचे था। साँप  ने जैसे ही नीरू पर पलट वार करने के लिए फन उठाया तभी नीरू ने अपना पाँव एक झटके से उठा लिया और कहा, 'माफ़ करना बेटा , गलती से पाँव तुझपर पड़ गया। आशा है मैंने तुम्हें चोट नहीं पहुँचाई। ' तब साँप ने नीरू से कहा, 'आपको मुझपर गुस्सा नहीं आया ? आप मुझे रोज़ खाना खिलाते हैं , फिर भी मैं जंगली मुर्गियों के अंडे और चूजों को खा जाता हूँ। मैंने यह भी देखा है कि आपने मुझे कई बार आपके बगीचे में घूमते नेवले और उनके बच्चों से कई बार आपने मुझे बचाया है। इन सबके बावजूद आपके पाँव लगने पर मैं आपको डसने आया , और आप मुझसे माफ़ी मांग रहे हैँ ?"
नीरू ने सांप  के प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया , "बेटा, डरे तुम भी और मैं भी। मैं उस दिन भी डरा था, जब मेरे हाथों सांप का एक अंडा फूट गया था। मैं इसी लिए  डरा था कि मुझ से अनजाने में जीव हत्या हो गयी। इसलिए मैंने  दूसरे अंडे को सुरक्षित रख तुम्हे पैदा होने और जीवित रखने का प्रयत्न किया। तुम्हारी साँप की पाशविक प्रवृत्ति के कारण तुम खुद मुर्गियों के अंडों और चूजों को खाते थे, साथ ही तुमने मेरे खेत और फसल की भी कई बार रक्षा की।तुम्हारे कारण चूहे और और अन्य पतंगे खेत में नहीं घुसते थे।   मैंने  प्रयत्न किया कि नेवले या तुम या और कोई भी जीव आहत ना हो। मेरा पाँव जब तुमपर पड़ा तब मेरे मन में यही शंका थी कि कहीं मैंने कोई जीव हत्या तो नहीं की ! मेरा पाँव तुमपर पड़ने से डरे तुम भी। तुम्हारे पाश्विक  प्रवृत्ति के कारण तुम आहत होने  और अपने प्राण खोने का भय बदले की भावना में परिणत हुई , इसलिए तुम फुफ्कारकर मुझे  डसने के लिए बढे।  बेटा हमारे भय के कारण अलग थे। मैं संतुष्ट हूँ कि मेरे कारण तुम्हारी  कोई क्षति नहीं हुई । " नीरू का उत्तर सुन साँप  जंगल की ओर चला गया।



The Snake (Short Story)
Niru was an old man who was a forest dweller. He lived in a hut all by himself. Throughout the day, he would work in the garden and crop fields close to his hut. He enjoyed a quiet and peaceful life.  Few hens and fowls from the forest used to come to his garden and field to peck on the seeds and grain. Niru built an open pen for them close to the hut.
A snake had laid two eggs in Niru’s and Niru was not aware of it. One day, while he was working in the field with his spade, he accidentally broke one of the two eggs. Crestfallen Niru covered the unbroken egg with loose earth and dry leaves. Henceforth, everyday, he would check on the egg before he would begin working in the field. One day, while checking on the egg, he found the egg shell crack and a black neonate hatch. Niru picked it up, placed it in a wicker basket and covered it with earth and dry leaves. He took it to the garden and placed it inside a hole he had dug for it. He then covered the home with dry twigs. Every day, he would collected few eggs discarded by the hens and place them in front of the hole for the snakelet to feed on. After complete his daily chores at home, when he would return to check on the snakelet’s hole, he would find the eggs gone. Niru then would smile to himself and head towards the crop fields to tend to the crops. Within a few weeks, the snakelet grew up into a snake. Niru would often find him slithering in the garden and the field.
On a winter morning, Niru got up early, while it was still dark outside. He went into the garden to pick a Neem twig to brush his teeth and inadvertently stepped on the snake that lay coiled up beneath the Neem tree.  Just as the snake hissed and raised its hood to strike at Niru, the latter jumped up and pulled away his feet from the snake. He then exclaimed, ‘Forgive me son, I accidentally stepped on you, as I could not see you in the dark. Hope I have not hurt you.’ Then the snake asked Niru, ‘Are you not angry with me? You feed me daily, yet I eat away the eggs and chicks from the pen. I have often seen you protect me from the mongoose and its children living in your garden. In spite of all that you have done for me, I did not hesitate to strike at you when you unknowingly stepped on me; yet you are apologizing to me?’
Niru replied to the snake, ‘Son, both you and I were afraid. I was afraid, even on the day I accidentally broke one of the two snake eggs I found in the crop field. I was scared coz; I was the cause of the loss of a life. That is the reason why I had picked up the unbroken egg and tended to it. I tried my best to keep you alive and safe. It was your serpentine instinct that made you prey on the chicken and eggs from the pen. I cannot ignore the fact you protected my crop fields from vermin and pests. I protected you from the mongoose because I did not want any of the beings living in the garden hurt one another. When I accidentally stepped on you, I was afraid of hurting or killing any being by stepping on it. You too were afraid when I stepped on you. Your animal instinct was the root cause of your fear of getting hurt of losing your life, which made you vengeful. You their hissed up to strike me. Son, the reason of our fear was not the same. I am glad I have not been the cause of your hurt or loss of life. ‘The snake intently listened to Niru’s response and slithered away into the forest.


Sunday, December 18, 2016

देश



Inspired by the news: 3 soldiers killed in terrorist attack on Army convoy in J&K
https://goo.gl/YaYIkS-via inshorts


"जनाब, ज़रा  पीने का पानी मिलेगा, ज़ोरों की प्यास लगी है... "
सिपाही दर्शन,  देश की पश्चिमी सीमा की  एक चौकी पर अपने, साथी सिपाही लेख के साथ तैनात था।  वह गर्मी के दिनों की भरी दोपहरी में चौकी पर चौकसी कर रहा था.  उसने  तार के बाड़े के उस पार से एक बच्चे की धीमी सी पुकार सुनी। उस आवाज़ ने फिर से पुकारा : "जनाब, ज़रा  पीने का पानी मिलेगा, ज़ोरों की प्यास लगी है... " तार के उस पार दूर दूर तक फैला मैदान था, जिसमें उगी हुई लंबी घास के कारण दर्शन को पुकारने वाला दिखाई नहीं दिया। वह चौकन्ना हो गया।  उसे लगा कहीं यह दुश्मन की कोई चाल तो नहीं है ? उसने लेख से सजग रहने को कहकर खुद पुकारने वाले को देखने के लिए , हाथ में अपनी बन्दूक थामकर तार के बाड़े की ओर बढ़ा। तभी आठ नौ साल का एक दुबला सा लड़का घास की ओट से उठकर खड़ा हो गया। दर्शन के हाथ में बन्दूक देखकर वह घबरा गया और अपने दोनों हाथ अपने सिर पर रखकर उसने गिड़गिड़ाकर कहा : "जनाब , मैं अमन हूँ। आप मुझपर गोली मत चलाना !" कहकर वह रोने लगा। दर्शन को उस बच्चे पर विश्वास नहीं हुआ ; क्योंकि ऐसे कई वारदात हुए थे जिसमें दुश्मनों ने घुसपैठ करने के लिए   गाँव वालों का सहारा लिया था। उसने लड़के पर बन्दूक तानकर कहा, "मैं तुझपर कैसे भरोसा करूँ कि तू अकेला है और तेरे साथ तेरे  देश का कोई सिपाही नहीं है ?" दर्शन की कड़कती आवाज़ से घबराकर अमन घुटनों के बल ज़मीन पर बैठ गया और उसने सिसकते हुए कहा, "जनाब, यह तुम्हारा देश क्या होता है ? मैं दूर गाँव से आया हूँ अपनी गाय और बकरी के लिए घास काटकर ले जाने। रुब्बा चाचा ने कहा था कि तार के बाड़े से दूर रहना, पर अच्छी घास ढूंढते मैं यहाँ कैसे पहुंचा, मुझे खुद नहीं मालूम! इस चिलचिलाती धुप में मुझे जोरों की प्यास लगी। कहीं पर भी पानी नहीं मिला, तभी आप मुझे नज़र आए..." कहकर अमन रोने लगा। दर्शन ने सिसकते हुए बच्चे को घूरते हुए कहा, "मुझे तुझपर भरोसा नहीं है। तू चिल्लाकर अपने बाप की कसम खा, कि तू सच बोल रहा है। " अमन ने रोते हुए कहा , "मेरे अब्बू और अम्मी , दोनों ही नहीं रहे। ..", "तो अपने चाचू की कसम खा, चिल्लाकर !" दर्शन ने गुस्से में  कहा।  अमन ने दर्शन का कहना माना और सिसकते हुए गिड़गिड़ाया , "जनाब , अब तो पानी पिला दो , बहुत प्यास लगी है। "
दर्शन ने लेख को पुकारा और उसे पानी लेकर आने को कहा।  जब लेख पानी लेकर आया तो दर्शन ने पानी की बोतल अमन को थमा दी। दोनों सिपाही हैरान होकर उस बच्चे को देखते रहे, जिसने पूरी बोतल का पानी एक घूँट में पी लिया। अमन ने खाली बोतल दर्शन को लौटाते हुए कहा , "जनाब , आपका  बहुत शुक्रिया, मुझे पानी ना मिलता तो मैं शायद घर नहीं लौट पाता। आपने तो मेरी जान बचा ली !" उसकी आँखों में ख़ुशी के आँसू छलक पड़े। उसे रोते देख दर्शन ने उससे उसके घर के बारे में पूछा तो अमन ने बताया कि , जब  वह दो साल का था तो उसके अम्मी और अब्बू गुज़र गए। उसके चाचा उसकी देखभाल करने लगे। उसके चाचा चरवाहे हैं और कुछ हफ़्तों से अमन अपने चाचा के साथ पास के गाँव में आकर रुका है अपने मवेशियों को चराने के लिए। अमन और उसका परिवार इस इलाके में नए थे और अमन को इस जगह की जानकारी नहीं थी। लेख ने अपनी जेब से एक मूंगफलियों का पैकेट निकाला और अमन को देते होये कहा , "ले खा ले , भूख तो लगी होगी। अब सावधानी से घर लौट जाना। "
अगले दिन दर्शन और लेख ने अमन को उनकी ओर आते हुए देखा। वह अपने हाथ में एक कपड़े की पोटली को लहराते हुए उनकी तरफ आ रहा था। दर्शन ने कांटे के बाड़े पास जाकर अमन को वापस जाने का इशारा किया ;पर अमन दौड़कर बाड़े के पास आ गया। अमन ने कपड़े की पोंटली दर्शन की ओर बढ़ाते हुए कहा , "जनाब, इसमें चटनी और रोटी है। चची ने दी है दोपहर के खाने के लिए। मैं यह आपके लिए लाया हूँ।" दर्शन ने लेने से मना किया और उसने से कहा , "अमन, यह और हमारे देश की सरहद है। अगर तुम्हे किसीने यहाँ देख लिया तो तुम्हारी जान खतरे में पड़ सकती है। तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए। "
अमन ने मायूस होकर , कहा "जनाब, कँटीले बाड़े के दोनों तरफ तो एक जैसी ज़मीन पेड़ पौधे और लोग हैं , तो यह दो अलग देश कैसे हैँ ? आपने तो  मेरी जान बचाई तो, जनाब , मैं आज शुक्रियादा करने आया हूँ।" कहते हुए उसने  खाने की पोंटली को दर्शन की तरफ बढ़ाई  । तभी दूर से बन्दूक चलने की आवाज़ आयी और एक गोली हवा को चीरती हुई  अमन को आ लगी। अमन ने एक हिचकी ली और वहीँ पर ढेर हो गया। दर्शन कुछ कर पाता उससे पहले काँटे के बाड़े के उस पर से गोलियों के चलने की आवाज़ आयी और दर्शन कूदकर लेख के पास चौकी की दीवार के पीछे पहुंच गया । उसने देखा लेख वायरलेस पर उनके अफसर को सारी  जानकारी दे रहा था। लेख ने अफसर से अपनी बात पूरी कर दर्शन से कहा , "दुश्मनों की चौकी से हमपर वार हुआ है। उन्होंने अमन को देखा था। आज इसलिए उन्होंने हमपर हमला किया है। कुछ ही देर में छावनी से एक टुकड़ी यहाँ आ रही, हमारी मदद करने। "
टुकड़ी आयी सरहद के दोनों तरफ से काफी गोली बारी हुई और दोनों ने ही अपने कुछ बहादुर सिपाही खोये। दो तीन दिन में जब गोली बारी खत्म हुई तो दर्शन और लेख को अपने कुछ साथियों के साथ छावनी लौटने का हुक्म आया।
जब दर्शन और लेख छावनी पहुंचे तो उन्हें पता चला कि उनके कुछ साथी जब यहाँ से दूसरी छावनी जा रहे थे तब आतंकियों ने उनपर हमला किया। आतंकियों के अनुसार अमन एक घुसपैठिया था, जिसको उन्होंने मार गिराया।  घुसपैठ करने की कोशिश हमारे साथियों ने अमन के सहारे की , इसी का बदला लेने के लिए आतंकियों  ने दर्शन और लेख के साथियों पर हमला किया था। यह सुनकर दर्शन को  अमन का आंसुओं से भीग चेहरा नज़र आया , " जनाब , मैं आज शुक्रियादा करने आया हूँ... "


Friday, December 16, 2016

पाँव की जूती

पाँव की जूती


कई साल से यह दम्पति
जी  रहे थे कलह भरी ज़िन्दगी।
दोनों ही थे मानसिक यातनाओं से बहुत ही दुःखी।
बाहर की ज़िन्दगी की रेलम पेल से थक हारकर
पति जब घर लौटता था,
वह अपनी सारी परेशानी से
गुस्से  और चिड़चिड़ेपन का घोल बनाकर
अपनी पत्नी पर उढ़ेलता था।
बात बात पर वह यही कहता
"तू मेरे  पाँव की जूती है !"
"तू मेरे घर के दरवाजे पर बिछी पायदान है !"
हर बार ताने सुनकर पत्नी अपने खून का घूँट पीकर चुप रह जाती थी।
अकेले में वह सिसकसककर खून के आँसू बहाती थी।
एक दिन दफ्तर  से परेशान होकर पति जब  घर लौटा,
हर दिन की तरह उस दिन भी उसने अपनी पत्नी को जी भरकर कोसा।
आखिरकार पत्नी के सब्र का बांध टूट ही गया।
उसने अपना झुका हुआ सिर उठाकर आँखों से आँखे मिलाकर कहा -
"अगर मैं हूँ आपकी जूती और पायदान , तो आपने मुझे बना दिया है महान :
झुकना पड़ता है आपको इस्तेमाल करने अपनी जूती और पायदान।
मुझमें है शक्ति आपके क़दमों को रास्ते में आये रोड़ों से बचाने की।
मुझमें है धैर्य आपके दूषित क़दमों और जीवन को पुनः स्वच्छ बनाने की।"
यह सुनकर पति हो गए मौन।
फिर कभी नहीं किया उन्होंने अपनी पत्नी का अपमान।



You Are At My Feet

For many years this couple
Lived a life, which wasn’t very peaceful.
Both of them endured immense mental agony-
Bogged down by daily life’s travails
When the man used to return to his lair,
He would rudely let his steam off on his harried spouse-
Who, would be quietly waiting for him there.
He would call her the shoes of his feet.
He would mock her as a doormat at the gate.
She would quietly listen to his raging rant.
When alone, she would shed tears of penitence.
One day, when the harried spouse returned home from work,
And as usual, he riddled her heart with his blatant mocks;
She looked into his eyes; and broke her silence,
This is what she said:
“If I am your pair of shoes and the doormat, according to you;
You have complimented me, for which I thank you:


You stoop to use your shoes and doormat
For, I have the strength to protect you from the challenges in your path.
For, I am stoic enough to endure the pain of cleansing you off all that pollute you.”
On hearing this, her spouse fell silent;
And he seized to slander her ever since.



Life